- Roodra Group Of Education
- May 14, 2023
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आज हम विकास के सिद्धांत को संक्षिप्त रूप में आपके सामने रख रहे हैं ताकि आपको आसानी से याद हो सके और आपको किसी तरह की परेशानी ना हो। हमारी कोशिश रहती है कि आपके विषय के टॉपिक को हम आपको आसानी से समझने योग्य बना सके।
जैसे हमने पिछले ब्लॉग में पढ़ा है कि विकास क्या है और वृद्धि क्या है? अब सिद्धांत को आप इस तरह समझें
1. व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत
प्रत्येक बालक वैयक्तिक दृष्टि से भिन्न होता है। बालकों का विकास उनकी व्यक्तिगत शक्तियों, क्षमताओं और अवसरों पर निर्भर होता है। वंशानुक्रमीय प्रभावों से स्पष्ट हो चुका है कि बालक जुड़वां भाई बहन, भाई भाई और बहिन बहिन भी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगातमक आदि क्षेत्रों में विभिन्नता रखते हैं। इसी कारण समान आयु के अलग अलग बालकों में विकास की दृष्टि से अंतर होता है।
2. विकास क्रम का सिद्धांत
इस सिद्धांत का अर्थ है कि बालक का विकास व्यवस्थित और निश्चित क्रम से होता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने इसको सिद्ध कर दिया है कि बालक के शारीरिक, मानसिक, भाषा, सामाजिक, संवेगातमक आदि विकास अपने अपने निश्चित क्रम से होते है। चूंकि गामक और भाषा संबंधी विकास एक दूसरे से सहसंबंधित हैं। अतः दोनो का विकास क्रम एक ही है। जैसे बालक जन्म से समय रोना जानता है लेकिन कुछ समय पश्चात ब, व, म आदि अक्षर बोलने लग जाता है तथा सातवें माह में बालक पा, मा, दा आदि ध्वनियों का प्रयोग करने लगता है।
3.परस्पर संबंध का सिद्धांत
बालक का विकास सदा एकीकृत होता है। विकास केडी अनेक पक्ष होते हैं जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगतमक आदि। प्रत्येक पक्ष में अलग अलग अंगों व शक्तियों का विकास होता है किंतु ये सभी प्रकार के अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि बालक में सभी प्रकार के विकास साथ साथ चलते है। उनके गुणों में अंतर न होकर मात्रा में अंतर होता है। अतः विकास के परस्पर सिद्धांत परस्पर जुड़े होते है।
4.निरंतर विकास का सिद्धांत
इसके अनुसार बालकों के विकास की प्रक्रिया सतत व अनवरत रूप से चलती रहती है। वह लंबी धीमी, तेज और सामान्य होती रहती है, लेकिन रुकती नहीं है। व्यक्ति की विभिन्न अवस्थाओं में विकास होता रहता है। यह विकास के विभिन्न स्तरों और पहलुओं पर निर्भर करता है। स्किनर के अनुसार विकास प्रक्रियाओं का निरंतरता का सिद्धांत इस तथ्य पर बाल देता है कि व्यक्ति में कोई परिवर्तन आकस्मिक नहीं होता है।
5. विकास की दिशा का सिद्धांत
यह सिद्धांत विकास की दिशा को निश्चित करता है। शिशु का शारीरिक विकास सिद्धांत, विकास की एक दिशा को निश्चित करता है। शिशु का शारीरिक विकास सिर से पैरों की ओर होता है। मनोवैज्ञानिकों ने इस विकास को मस्तोधोमुखी विकास कहा है। अतः हम कह सकते है कि शिशु के सिर का विकास, फिर धड़ का विकास और इसके बाद हाथ एवं पैर का विकास होता है।
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